विराम।

विराम।


बहुत दिन बीत जाते हैं और फिर निकल कर आती है वो बात जिसे वक़्त काफ़ी वक़्त से अपने पीछे रखता हुआ आता हैं।

कभी कभी लगता है कि एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहाँ से विराम स्पष्ट दिखे और वहाँ से मैं रोज़ उस विराम को इस उम्मीद से देखूँ कि कभी वहाँ जाकर सब समाप्त कर दूँगी, बचा कुचा जान लेने के बाद।

कभी कभी विश्व में भरा पूरा जल प्यास नहीं मिटा पाता है, इतने फल फूल क्षुधा नहीं समाप्त कर पाते हैं और प्रेम भी संतुष्टि और पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं होता है।

मन पृथ्वी की तरह किसी सूर्य के चक्कर काट रहा होता है, निरन्तर! सूर्य बढ़ता जाता है, निकटतम आता जाता है, ताप से मुझे जलाता जाता है।

मेरा सूर्य सांसारिक बातें हैं और मेरा नासमझ मन पृथ्वी।


कभी कभी मन करता है उस व्यक्ति का गिरेबान पकड़ लूँ और झकझोड़ दूँ उसे जिसने बनाई बेतुकी ज़िम्मेदारियाँ, असहज रिश्ते, कमज़ोर रक्तसम्बन्ध और बेडौल सामाजिकता।

मुझे लगता है या कह लो कहीं न कहीं पता है कि नीतियाँ बनाई गई थीं स्थायित्व लाने के लिए परन्तु अपने अस्थिर स्व को देख मेरी चिंता पहाड़ों की चोटी के अकेलेपन को देखती है, और सोचती है अकेला रहना सुंदर लगने जैसा है।

अकेला पक्षी, अकेला पहाड़, अकेला झरना, अकेला जहाज गगन चूम आते हैं।

एकाकीपन भीड़ में गौड़ लगता है परन्तु इसकी परिधि की पहुँच को समझने वाले व्यक्ति अपने अपने आसमान को स्पर्श कर आए हैं।


जीवन होना और जीवित रहना कितना महत्वपूर्ण है।

मेरा कुछ कर गुज़रना अब मुझे किंचमात्र लगता है,

बस मेरे समय का स्थायित्व के साथ गुज़रते रहना ही सम्पूर्ण को जन्म देगा।

बचा कुचा ख़त्म हो जाएगा।

तब मैं जाऊँगी अपने विराम के गर्भ में,

और मुस्कुरा कर सो जाऊँगी।

- प्राची।

It's time for change 😊

Comments

Anonymous said…
This is so beautifully expressed.
Blogger said…
Hey dear. I’m speechless. That’s it. And yes, I get lost, somewhere whenever I read your posts. 💗 All the best.